जीवन के हर क्षेत्र के नेतृत्व की, चाहे वह सामाजिक हो, राजनैतिक हो, या धार्मिक हो, यह अपेक्षित कसौटी होती है कि वह उज्ज्वल चऱित्र व आदर्शमय आचरण की मर्यादाओं का पालनकर्ता हो क्योंकि शीर्ष नेतृत्व ही देश व समाज का दर्पण होता है। उज्ज्वल सामाजिक परम्पराओं को बनाए रखनेव विकृतियों को रोकने के लिए सर्वप्रथम दायित्व शीर्ष नेतृत्व का बनता है। उनसे यह अपेक्षा रहती है कि वे पीढ़ियों से चले आ रहे अच्छे सुस्थापित रीति-रिवाजों का पालन करते हुए समाज का सामयिक परिपे्रक्ष्य में सम्यक मार्गदर्शन करें लेकिन दुर्भाग्य से आजकल हमारे कुछ राजनेताओं व सामाजिक नेतृत्व के परम्परा विरोधी आवांछित आचरण से समाज लज्जित महसूस करता है। आज राजपूत समाज हर दृष्टि से संक्रमण काल से गुजर रहा है, हमारे गौरवमय अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगने के भयावह बादल मंडरा रहे हैं। राजपूत जाति की छवि उज्ज्वल चरित्र, रक्त की पवित्रता, सत्य, न्याय और त्याग के गुणों की प्रतिक मानी जाती रही है। लेकिन अब इन परम्परागत उच्च आदर्शमय विरासती गुणों का पतन ही हमारी चिन्ता का कारण है जिस पर अति शीघ्र ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि हम अपनी राजपूती संस्कृति को भूलकर या फिर छोड़कर अन्य लोगों की निकृष्ट प्रवृत्तियों की नकल करने लगे हैं। इस नैतिक गिरावट का मुख्य कारण हमारे कतिपय राजनेताओं, कुछ सामाजिक संस्थाओं के शीर्षस्थ व्यक्तियों व पाश्चात्य संस्कृति प्रभावित नव-धनाड्य वर्ग (Neo-rich) का परम्परा विरोधी अवांधित सार्वजनिक गतिविधि व पथभ्रष्ट आचरण है जिससे समाज में गलत संदेश जाता है और देखादेखी कुछ लोग इन विसंगतियों को सहजता से अपनाने लगते हैं। भारत में यह सर्वमान्य धारणा व आम कहावत है कि जैसा राजा वैसी प्रजा। हमारी उज्ज्वल परम्पराओं के इस विघटन को रोकने में सारा समाज असहाय महसूस करता है। अत हमें निम्नाकिंत बिन्दुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है:-
1. रजपूती रक्त की पवित्रता और जीन को सुरक्षित रखना ।
2. अन्तर्जातीय विवाह नहीं करने चाहिए।
3. सगोत्रीय विवाह नहीं करने चाहिए।
4. हमारी युवा पीढ़ी को समाज व परिवार की मर्यादाओं का ज्ञान कराकर संस्कारवान बनना चाहिए।
5. परम्परा विरोधी कार्य करने वाले व्यक्ति का स्वप्रेरित बिना शोर-शराबे के सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए, चाहे वह कोई हो।
सार्वजनिक जीवन में कार्यरत अग्रणी व्यक्तियों से यह अनिवार्यत अपेक्षा होती है कि उनका चरित्र, चाल-चलन व आचरण सत्यपरक, आदर्शमय व सुस्थापित सामाजिक मान्यताओं व परम्पराओं के अनुरूप होना चाहिए। उनका सार्वजनिक जीवन खुली किताब की तरह होना चाहिए व उसमें निजी जीवन या निजी जीवनशैली के नाम पर उच्च आर्दश परम्परा विरोधी स्वछन्द आचरण के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।
इस पृष्ठभूमि में हमें ईमानदारी से आकलन करना होगा जिससे अच्छी बातों को आगे बढ़ाया जाए और विसंगतियों या हानिकारक बातों को तिलांजलि दी जा सके। यह सर्वमान्य अवधारण है कि सामाजिक विकास की दृष्टि से एवं जातिगत हितों की रक्षा व अन्य भेदभाव प्रताड़नाओं से बचाव के लिए सामाजिक संस्थाओं के गठन की अपरिहार्य जरूरत व अहम भूमिका है। लेकिन कुछ धनी या प्रभावशाली व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थ साधने के लिए अपनी निजी जेबी संस्थायें बनाकर उनको सामाजिक संगठन का जामा पहना देते हैं। सामाजहित की आड़ में अपना हितसाधन करते हैं। ऐसे तत्वोें की कारगुजारी से सारा समाज बदनाम होता है जिसका खामियाजा आम राजपूत की भोगना पड़ता है।
सभी जातियों में अपने जातिगत-प्रतिनिधित्व के लिए एक प्रतिनिधि संस्था है लेकिन हमारे समाज में संस्थाओं की बहुलता है और आए दिन किसी व्यक्ति विशेष की अहम तुष्टि के लिए एक नई संस्था बन जाती है। उनका न कोई सामाजिक मुद्दा होता है न कोई मकसद। केवल अखबार में नाम छपना चाहिए। यही हमारे सामजिक बिखराव का मुख्य कारण है। प्रजातंत्र में जातीयता दुधारी तलवार है। जिस पर मौनता या प्रर्दशन समय, स्थान व परिस्थितियों के अनुरूप विवेकशीलता से किए जाने की महती आवश्यकता है अन्यथा विपरीत प्रतिक्रिया से घातक हानि होती रहती है। जिसका दंश राजपूत समाज निरन्तर झेलता आ रहा है। इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति व इसके निराकरण के प्रयास करना हम सबका दायित्व बनता है और मुझे हैरानी होती है कि समाज का संवेदनशील तबका क्यों नही मुखर रहा, कब तक समाज किसी अवतार की प्रतीक्षा करता रहेगा? हर खास और आम व्यक्ति की सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि वह समाज है करने के लिए स्वत आगे आए। अगर हमारी सामाजिक व आर्थिक स्थिति इसी भांति गिरती रही तो राजपूत जाति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। अत हम सबका फर्ज बनता है कि हम सकारात्मक सोच के साथ, समाज को निस्वार्थ भाव से सक्रिय योगदान देनें के लिए स्वप्रेरणा से आगे आए और हमारी उज्ज्वल संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के पवित्र अभियान से जुड़े, हम आपके आभारी होंगे।